"डुगडुगी बजती रही और आदिवासी लड़ते रहे। जब तक एक भी आंदोलनकारी जिन्दा रहा वह लड़ता रहा।"
- Adivasi People
- Jun 30, 2021
- 3 min read
Updated: Aug 28, 2021
"डुगडुगी बजती रही और आदिवासी लड़ते रहे। जब तक एक भी आंदोलनकारी जिन्दा रहा वह लड़ता रहा।"
30 जून ,1855 का हूल
ब्रिटिश साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद और पूंजीवाद के कुचक्र के खिलाफ भारत का प्रथम स्वतंत्रता पहला संग्राम "संथाल हूल" के हजारों शहीद हुए वीर योद्धाओं की शहादत को नमन
हूल को कई अर्थों में समाजवाद के लिए पहली लडाई माना गया है, जिसमें न केवल आदिवासी के लिए बल्कि समाज के हर शोषित वर्ग के लोग इस आंदोलन से जुड़ चुके थे।
सिद्धू, कान्हू चांद, भैरव, कोवालिया संथाल, फूलो मुर्मू, झानो मुर्मू, मुचिया संथाल, अंता मांझी, हरदास जमादार, मंगरा पहाड़िया, गोरिया पहाड़िया, मूराला मांझी, परेटो मांझी, किस्तो संथाल, बिकरी संथाल, लेगा ठाकुर, चेरागा ठाकुर, गोंदू लोहार, साम परगना आदि लोगों ने इस जनक्रांति को नया आयाम दिया।
इस आंदोलन में शामिल लोग गांव-गांव जाकर हूल का लोगों को निमंत्रण देते थे। इस जनक्रांति में 400 गांवों के लगभग 50,000 अधिक लोगों ने सीधे तौर पर ब्रिटिश हुकूमत और स्थानीय शोषकों के खिलाफ लड़ाई लड़ी।
इस क्षेत्र में अंग्रेजों ने राजस्व हेतु संथाल, पहाडियों तथा परम्परागत जंगल के अन्य निवासियों पर मालगुजारी लगा दी। इसके बाद न केवल यहां के लोगों का शोषण होने लगा बल्कि उन्हें मालगुजारी भी देनी पड़ रही थी। इस कारण यहां के लोगों में बगावत होने लगी थी।
यह आंदोलन संथाल परगना के समस्त गरीबों और शोषितों द्वारा शोषकों, अंग्रेजों एवं उसके कर्मचारियों के विरूद्घ स्वतंत्रता आंदोलन था।
इस दौरान लोगों ने साल (सखुआ) की टहनी को लेकर गांव-गांव यात्रा की। आंदोलन को कार्यरूप देने के लिए परंपरागत शस्त्रों से लैस होकर 30 जून, 1855 को 400 गांवों के लोग भगनाडीह पहुंचे और आंदोलन का सूत्रपात हुआ। इसी सभा में यह घोषणा कर दी गई कि वे अब मालगुजारी नहीं देंगे।
इसके बाद अंग्रेजों ने इन चारों भाइयों को गिरफ्तार करने का आदेश दिया परंतु जिस पुलिस दरोगा को वहां भेजा गया था, संथालियों ने उसकी गर्दन काट कर हत्या कर दी। इस दौरान सरकारी अधिकारियों में भी इस आंदोलन को लेकर भय व्याप्त हो गया था। भागलपुर की सुरक्षा कड़ी कर दी गई थी। इस क्रांति के संदेश के कारण संथाल में अंग्रेजों का शासन लगभग समाप्त हो गया था। कलकत्ता प्रेसीडेंसी की नींव हिल गई थी।
अंग्रेजों ने इस आंदोलन को दबाने के लिए इस क्षेत्र में सेना भेजी और जमकर गिरफ्तारियां की गई और विद्रोहियों पर गोलियां बरसाईं। आंदोलनकारियों को नियंत्रित करने के लिए मार्शल लॉ लगा दिया गया। आंदोलनकारियों की गिरफ्तारी के लिए पुरस्कारों की घोषणा की गई। बहराइच में अंग्रेजों और आंदोलनकारियों की लडाई में चांद और भैरव शहीद हो गए।
अंग्रेज इतिहासकार डब्लयू डब्लयू हंटर ने अपनी पुस्तक एनल्स ऑफ रूलर बंगाल में लिखा है कि संथालों को आत्मसमर्पण की जानकारी नहीं थी जिस कारण डुगडुगी बजती रही और आदिवासी लड़ते रहे। जब तक एक भी आंदोलनकारी जिन्दा रहा वह लड़ता रहा।
इस युद्घ में करीब 20 हजार आदिवासियों ने अपनी जान दी थी। विश्वस्त साथियों को पैसे का लालच देकर सिद्घू और कान्हू को भी गिरफ्तार कर लिया गया और फिर 26 जुलाई, 1855 को दोनों भाइयों को भगनाडीह गांव में खुलेआम एक पेड पर टांगकर फांसी की सजा दे दी गई।
ब्रिटिश सरकार के खिलाफ इस आंदोलन की तीव्रता अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि जर्मनी के समकालीन चिंतक कार्ल मार्क्स ने अपनी पुस्तक नोट्स ऑफ इंडियन हिस्ट्री में जून 1855 की संथाल क्रांति को जनक्रांति की संज्ञा दी है।
कहने को देश के इतिहासकारों ने इस प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को एक मात्र आदिवासियों का विद्रोह करार दिया गया है। मगर इस क्रांति की हकीकत यह है कि ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ देश के किसानों का पहला विरोध था।
इस विरोध का कारण था स्थायी जमीदारी व्यवस्था और रैय्यतवाड़ी व्यवस्था, जिसने किसानों को उनकी जमीन पर मजदूर बना दिया और बाहरी लोगों को उनकी जमीन का मालिक बना दिया। जिसके विरोध में खेती से जुड़ी हर जाति, वर्ग ने ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ आवाज को बुलंद की।
इस हूल में कुम्हारों ने क्रांतिकारियों के लिए पानी के घड़े बनाए, चमड़े का काम करने वालों ने क्रांतिकारियों के लिए जूते और अंग्रेजो की गोलियों से बचने के लिए बुलेट प्रूफ जैकेट बनाए तो वहीं लोहे का काम करने वालों ने क्रांतिकारियों के लिए तीर, तलवार और भाले बनाए। लकड़ी का काम करने वालों ने क्रांतिकारियों के लिए लकड़ी के ओजार बनाए। इस जनक्रांति में महिलाओं की अद्भुत भागीदारी रही।
यह क्रांति पूरी तरह से एक किसान क्रांति थी लेकिन हमारे मनुवादी इतिहासकारों ने सिर्फ इसको एक विद्रोह करार दे दिया।
#हूल_दिवस

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